Wednesday 4 June 2014

अलविदा Adios



यह एक लम्बा लेख है, कृपया गरमा गरम चाय बनाये और पढ़ना चालू करें| :)

आपको चाहे अच्छा लगे या बुरा, यह बात तो तय है: जन जीवन के सबसे कटु सत्यों में से एक जो सबसे सनातन और सबसे कठोर है वो है अलगाव का सत्य; फिर वो अलगाव चाहे मृत्यु से हो या परिस्तिथि वश।

अटल जी का एक कथन याद आता है इधर - 'जो कल थे वे आज नहीं हैं, जो आज हैं वे कल नहीं होंगे। होने न होने का क्रम यूँ ही चलता रहेगा, हम हैं हम रहेंगे ये भ्रम भी सदा पलता रहेगा।'

मनुष्य जन ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का बड़ा ही कारगर उपाय खोज रखा है: भाषा। पर यकीन मानिये, मैंने लगभग हर भाषा में यह शॊध कर के देखा है, दुनिया की किसी भी भषा में अलविदा कहने के लिए शब्द जरुर है; उन भाषाओँ में भी जो अभी तक पूर्ण रूप से विक्सित नहीं हुई हैं!

अक्सर यही सोचता हूँ मैं, ऐसा क्या चलता है हमारे दिमाग में की जाते समय अलविदा कहना ना ही सिर्फ सदाचार बल्कि हमारी एक पूर्ण रूप ज़रूरत भी है।

जहा तक मेरा मानना है, यह जरुरत हमारी एक बहुत मूल जरुरत से उभरती है| वो जरुरत है - लोग हमें जानें, याद रखें। कोई अगर आपसे कहता है की "मुझे बड़ा आदमी बनना है", दरअसल वो यह कह रहा है कि "मैं चाहता हूँ मरने के बाद भी लोग मुझे याद रखे कुछ ऐसा कर के जाना चाहता हूँ'

अगर आप मेरे लेख, कविताएँ पढ़ते आये हैं तो आपको ज्ञात होगा मुझे ज़िन्दगी को एक सफ़र भाति मानना काफी पसंद है। अपने पुरे जीवन काल में, जो की एक सफर है, हम जाने अनजाने सिर्फ एक कार्य को प्रगतिमान कर रहे होते हैं - अपने अलविदा कहने को| आप के जाने के बाद आपको कौन याद रखता है, कौन भूलता है, वो इसपर निर्भर करता है कि आपका जीवन काल किस प्रकार से लोगों को अलविदा कह रहा होता है| वो लोग चाहे करीबी हो या पराये|

मैं ज्यादा तो नहीं जानता हूँ पर इतना जरूर जानता हूँ कि अलविदा कहना एक कला है; एक ऐसी कला जो हम में से कुछ महान पुरुष ही जानते हैं| कोशिश करता हूँ ये आखिरी अलविदा आप को भा जाए|

आज मेरा कॉलेज पूरा हो गया, मैं अंततः इंजीनियर बन गया| जानता तो था ये दिन आना था, कई बार कल्पना भी करी इसी की| पर सच और कल्पना कभी होनी के परे कहाँ पहुंच पाये हैं?

कुछ ऐसा ख़ास नहीं है जो आज तक किसी और कॉलेज के लड़के ने 'फील' नहीं किया; सब जानते हैं कॉलेज छोड़ना कितना दुखद होता है| पर एक जगह रुका भी तो नहीं जा सकता, क्यों? जैसा की खलिल गिब्रान ने कहा है: मैं रास्ता पकड़ता हूँ, तो घर बुलाता है, कहता है रुक जा यहाँ तेरा अतीत है और घर पे रुकता हूँ तो रास्ता बुरा मान जाता है, कहता है मैं तेरा भविष्य हूँ| मैं अपने घर और रास्ते दोनों से यह कहता हूँ न मेरा कोई अतीत है ना मेरा कोई भविष्य| अगर मैं रुकता हूँ तो मेरे रुकने में कुछ जाता सा होगा और अगर मैं जाता हूँ तो मेरे जाने में कुछ रुका रुका सा होगा| सिर्फ मौत और मुहब्बत ही बदलाव ला सकते हैं|

  
बहुत कुछ सीखा है मैंने अपने जीवन के इस भाग से, आपने भी सीखा होगा| क्या क्या सीखा ये तो नहीं बता सकता, कुछ ज़्यादा ही बड़ा लेख हो जायेगा पर इतना बता सकता हूँ की आने वाली कई कठिनाइयों के लिए सक्षम हो चूका हूँ| कई यादें समेटी हैं मैंने, शायद जीवन के मुश्किल मोड़ों पर रास्ता दिखाएंगी याँ शायद गुमराह भी कर दें|

अब आप आज़ाद हैं, उस दुनिया में छोड़ दिए गए हैं जो अपनी क्रूरता के लिए मशहूर हैं| पर याद रखिये, जहां क्रूरता है वहां कल्पना से भी परे की सुंदरता है| आप हर कदम पर गिरेंगे, पर यह भी याद रखिये की आपको संभल कर उठने के लिए आपके अपनों का प्यार आपको प्रेरणा देता रहेगा| आपका हर दिन एक जंग होगा, पर हर दिन के अंत में आपको नवजात सामान बेहोश नींद मिलेगी| आपको लोग कोसेंगे पर यह भी याद रखिये आपके मित्र आपकी प्रशंसा की पुल बांधना कभी बंद नहीं करेंगे| मैं कामना करता हूँ आपको जीवन के हर आँगन में सफलता के फूल खिलने की ताकत मिले, और आप महकें|

हो सके तो याद रखियेगा| :)

यह इस ब्लॉग का आखिरी पोस्ट है| इसके बाद न ये ब्लॉग गूंजेगा, ना वो 'कॉरिडोर' उन आवाजों से गूंजेगा जहां कभी मैं पानी पीने के बहाने किसी लड़की को देखता था या घूमते घूमते किसी विषय पर बहस करता था| ख़ुशी बस इस बात की है की नए ब्लॉग और नए कॉरिडोर मिलते रहेंगे|

अंत में एक कविता सुना कर आखिरी अलविदा कहना चाहूंगा| अगर आप इस कविता को सम्पूर्ण रूप से समझ पाये तो अपनी 'कॉलेज लाइफ' सफल जानिएगा| :)
कुछ छूट तो नहीं गया?

आज सामान बांधते हुए कुछ बात चली
एक बिछड़ते मित्र के साथ

"इतना सारा सामान है एक दिन में कैसे बंधेगा?"

"बंध जायेगा साले 
तुम्हारा तय लगाने का ये चुल्ला बस ख़तम हो"

"यादें हैं साले, तय नहीं लगेगी
तो लम्बा नहीं चल पाएंगी

"कामयाबियों की शर्टें तो सारी डाल दी हैं
कुछ कुछ तो ऐसे दबीं पड़ी थीं
याद भी नहीं आता कभी कमाई भी थीं"

"वो जो तुम्हारा 'एम्बिशन' 'सूट' वाला है 
उसे ढंग से जाना 
क्या पता कब पहनना पद जाए"

"गाँव वाले सूट नहीं पहनते
भाई मेरे :) "

"तुम्हारा एक रुमाल भी रह गया है मेरे पास"

"वो तो तुम ही रख लो
जब तुम्हे ईगो वाला जुखाम हुआ था
तब दीया था, तुमने वो साफ़ ही नहीं करवाया"

"तुमने भी तो मेरा 'प्राइवेसी' वाला तकिया
बहुत बार ले ले के, पतला कर दिया है
उसमे अब दुबारा प्राइवेसी की रुई डालेगी"
"ये हमारी मेहेफिलों वाली चादर का क्या?
इसे तो घर भी नहीं ले जा सकता
सिगरेट के छेद हैं
माँ झट पहचान जाएँगी क्या बीती थी इस्पे"
 
"ले जाना बे, कह देना
आलस वाली 'प्रेस' से हो गए हैं छेद
और गिर गई थी 'रोज़मर्रा' वाली दाल"
"मेरी वो सेमेस्टर वाली पेन भी कहीं खो गई है
मिल जाए तो रख लेना संभाल के"
"ईतना टाइम नहीं है,
मुझे अपना भी तो देखना है"

"वो मेरी 'सेल्फ-एस्टीम' वाली जीन्स याद है
जो मुझे सबसे ज्यादा पसंद थी?
फट गई थी एक रोज़,
दरजी बता रहा था रफू हो सकती है
अभी भी"

"तुम्हारा जो 'इन्टेरोवर्शन' वाला 'एअर्फोन' है
उसका क्या?"

"वो तो यार लोगों नें, मांग मांग के
खराब ही कर डाला,
अब तो सबकी सुन्नी पड़ती है"

"तुम्हारी जो टाइमपास वाली किताबें हैं
वो बटोर लीं सब जगह से?"
"कहाँ यार, किसको कौन सी दे आया
याद भी नहीं
लोग हैं साले की लौटाते भी नहीं"

"तुम्हारा वो महनत वाला जूता?"

'वो तो ढंग से घिसा भी नहीं
यहीं छोड़ जाता हूँ, सफाई वाला
ले जायेगा एक रोज़ उठा के

"एक वो मेरी बातचीत वाली चाय का
मसाला था, बड़ी दूर से लाया था
वो भी ख़तम हो गया है"

"वो जो 'डिफरेंट' लगने के लिए 
'सभ्यता' वाला कुरता तुम लाये थे, 
वही पहन के 'पारो' के घर के पास से निकलना
'गर्लफ्रेंड' तो न बना पाए
हो सकता है शादी का 'ऑफ़र' ही पा जाओ"
"साले रुको, तुम्हारी लौंडियाबाजी वाली
'फेवरेट' 'केप्री' पर
पान की पीक मार जायेंगे"

"चलो अब वक़्त न खाओ
भागो, तुम्हारी 'भविष्य' वाली गाड़ी
आने का टाइम हो गया है"

"हाँ दोस्त चलता हूँ,
वो 'फॉर्मेलिटी' वाला जो 'गिफ्ट' थमाया था
उसे उठा पटक के देखना जरुर
इसी बहाने याद भी कर लोगे"

हस्ते हुए बोला
"वो तो कबका गंगा विसर्जित कर आए| 
 सारा सामान बाँध लिया न
 कुछ भूले तो नहीं?"

"हाँ यार,
बाँध ही लिया सब क़ुछ। 
चलो अलिदा!"

उस रात ट्रेन की 'बर्थ' लेटा जब, तो याद आया
वो बेफिक्र-जवानी वाली जो टी-शर्ट थी
उसे तो भूल ही आया

अब तमाम उम्र, 'जिम्मेदारियों' की
'कमीज़' में कटेगी

काटेगी शरीर, वो कमीज़।

Adios! ;) 

Monday 12 May 2014

Farewell



There aren't many things that make this heart of mine go heavy. Nor are there much incidents that can stutter my finger when I want to write about them. Farewell, though, is different from those incidents. Today, my hand shakes while I jot down few of the final pieces of this blog. I guess a man has to wait for a fair share of time to see incidents that can really shake him up.

All though I have no clue why is that happening. Frankly speaking, I have made acquaintance with many in my college, but friends with very few. That is just how I am! I barely came to college. Still, every day for the last four years, that seemed boring before, now adds up to reveal itself as a grandiose journey we all expected 'College Life' to be. It's tough, really, to depart from the most wonderful years of our lives.

What makes them wonderful is another question I was thinking about today. Maybe, freedom. Maybe, friendship. Maybe many small things that add up to the larger experience. Who cares, as long as it remains wonderful!

In earlier periods of Rome, whenever soldiers would go out for war, a night before they would celebrate as if it were the last day of their lives. And the very next morning they would depart from their families, maybe (usually) never to see them again. That was the analogy I could get fro the occasion.

Isolation follows next.

So, let's fucking party!!! Burn the dance floor, shake skies with music, smile the best we can for each other and look in-fucking-credibly awesome.

And then, depart.

Here's a poem I promised to write. If you guys like it, give a thumbs up on Facebook. I may recite it maybe on the Farewell night? It may not go down well with the faculty though. :P



यादें कहाँ कहाँ घर बना लेती हैं
कुछ खानाबदोश यादें हैं,
छुप गई हैं कहीं जाके
शायद मिलेंगी मुझसे
ज़िन्दगी के किसी दोराहे पे
हयाती के मझधार में

यादें घर बना बैठीं हैं
मेरे लिबासों के दागों पर
मेरे बदन के निशानों पर
कई मसरूफ शामें बर्बाद
करी थी जिन मैखानो पर

चाय वाले की गुमटी में
सस्ते ढाबों की दाल फ्राई में
छोटे मुद्दों की पहाड़ों पर
बड़े मुद्दों की राई में

जो सिगरेट झड़ने से पड़ गए
चद्दर के उन छेदों में
फर्स्ट ईयर से लेकर अबतक
खिचे आये मतभेदों में

अनगिनत हुए झगड़ों में
क्रमरहित खींची तस्वीरों में
देर रात तक चले गप्पों में
फिर पेपरों में आये जीरो में

बेधड़क निकली गालियों में
लव एंड रिलेशनशिप की हिदायतों में
कॉलेज की सूखी होली में
छुट्टी के बाद की मुलाकातों में

'साला बी.टेक. कर के गलती करी'
रोज़ रोज़ दोहराने में
या संडे आफ्टरनून कोर्टपीस में
दोस्तों को हराने में

एक दूसरे के लिए लड़ाई में
जान देने के जज़्बों में
या दोस्त का एक्सीडेंट होने पर
भगते कापते पैरों में

एग्जाम से पहले रात को
एक दूसरे को पढ़ाने में
किसी का प्लेसमेंट होने पर
दम लगा के गले लगने में

और जाने कहा कहा घर बना बैठीं हैं
एक टूक गिनों तो याद भी नहीं आता
डर एक ही लगा रहता है बस अक्सर मुझको ,
इन यादों का पता न खो दूँ
इन यादों का पता न भूल जाऊं...

Monday 27 January 2014

Start (Shuruat)

It has been a while since I have written something, because my creativity was kind of dead. Maybe it still is. You guys tell me. Due to aforementioned reasons I took my own sweet time writing this article. I can almost feel a first timer's jitters while writing this baby. I am working on improving my writing. And also working on changing my style of sentence construction. Not style per say; just doing a little modifications here and there. It's anyways hard to improve things already bordering perfect! :P Kidding!

Also, if you have been following my Great Wall of Facebook, you must be aware that I have been writing quite a few poems now a days! Why this sudden obsession you ask? I wish I had the answer. I don't. It just happened, like a lot of things in life. Why not make the best of it?!

Happy New Year to you and your family. Stay Blessed. I know I am way late than the allowed norms. But I didn't want to mess things up. I wanted to come up with a nice article to go with your lazy winter holidays. May be thrown in a bit inspiration and philosophy.

I have been hearing quite a lot from people that last year was bad. Well, stop complaining!

Here's the most important thing - it is one thing to have a check on yourself another to bash yourself up. Last year wasn't bad. Period. Stop cringing about it to people! Never regret your decisions (Godfather). Act upon improving them. I have also been hearing a lot that - '13 is a bad number and that was why 2013 was bad. Let 2014 come. I will run naked around the world in 2014.' and what not.The run naked part was made up! Anyways; guess what? I was born on 13th October and I am in no way unlucky. Infact, I am fucking bag of lucks. My life is fucking awesome. So is yours. Life is just the way you look at it!

I lost a fucking 40k bike in 2013 and lost a lot of creativity too. Other shit happened but I avoid writing about poop. I didn't spend my last year on Malibu with two Caucasian women massaging me. But that's life. Deal with it. Make mistakes then fucking look them in the face. Tell them that I am coming to get you bitch. Whip them in the butt. Conquer!

And now the best part - resolutions. Let me tell you guys mine.
1. I am working upon improving my writing skills
2. I am finally hoping to release my novel this year -  the first of many more to come (hopefully).
3. This one may sound like a cliched, but, I am aiming to shed my weight to a normal level.
4. I am hoping to start a series of new blogs - one related to cinema (my life long dream), one of comedy and sattire and one will be my personal blog which will be the complete replacement of College diaries.
Yup college diaries will soon stop getting updated. My new personal blog - glimpses of which you can see right here - will be a more matured blog where I will discuss over various topics, inclusive of personal articles, such as photography, travel, music, politics, philosophy and helluva lot more. 
But; before leaving CD I will give my insights to my college life - the way I see it. Is that cliffhanger enough to keep you hooked?
5. I am aiming to travel more and learn at least one new language completely.And I have already taken the first step. Just go to my new blog, silly!

What are your resolutions? Comment them down!
Here's to the undying spirit of new year resolutions. This time either don't make them or don't break them. A poem for your eyes only! :) This poem was intended to be a bit more lengthy than it is. I was also supposed to be a bit more complex. I chucked all other versions; because the one below (which is like lay man simple) did the deed. And How!! :)

चलो एक शुरुआत करें

मुट्ठी भर सपने लेके
ओख भर उम्मीद लेके
जेब भर प्रेरणा लेके
झोला भर हौसला लेके
अनंत प्रताप लेके

वक़्त के कोरे काग़ज़ पर
अभिलाषा कि सियाही से
इतिहास एक नया लिखें
चलो एक शुरुआत करें

Adios!

Thursday 15 August 2013

आज़ादी (Freedom)

"Dushman Ki Goliyon Ka Saamna Hum Karenge, Azad Hi Rahe Hai, Azad Hi Rahenge"

-Chandra Shekhar Azad

'Is the Independence day just another holiday for you?' some woman on the television asked. This was 3 years back and I was yet to join my college.

I was a little taken aback by the question and on reflecting back a little bit I did realized that yes, Independence day for many was yet another holiday. We do things like raising a flag and all, but all that is just the formal ritual which almost everyone across this country does. Raising a flag in itself is not less in anyways mind you, but is that enough? Then the other times I just shrug and say "I am in college, what can I supposedly do?" Never did I knew that the answer was waiting for me.

Three  years down the line, a lot happened. College happened, crushes happened, fights happened and friendships happened. And amidst all that chaos, College Diary happened. Because College Diary happened, I hold a moral obligation to give respect to my country and share patriotism with my readers with this medium I subdue. Not a lot has changed when it comes to celebrating Independence day, but still a lot has changed. The younger me would have got up early, bought small flags to cover almost every corner of his belongings, brought in kites to fill the sky with the three most beautiful colors of this world and watched a lot of patriotic films on television; not to forget attending the school function where we got free laddoos. The present me would have pretty much done the same (please excuse the getting up early part), though every thing electronically. Yes, this is the electronic era, and we have to make place for its existence. But this very time, I try to differ. I posted nothing on Facebook, that will easily be lost in the large wave of updates coming every now and then. Instead, I wrote this article. This article (as I hope) will remain at least for the coming 10 years. That much time is enough to spread my voice. *honest wink*

But coming back to my original topic: Freedom. Freedom; One subject that has pestered in the gardens of my thoughts all my life, since I gained conscious if I am not wrong. When I was 4 or 5, I brought in a parrot from the Saturday market one day and hung its cage in the veranda. It was this parrot that changed the way I see the world today; forever. Read the poem in the end to know more. No one in my family knows the importance of the events that lasted almost 15 days long, maybe because I chose not to show them how I felt.
 Moving away from home to study brings in a complex bunch of feelings all together - you are free and excited yet you feel low when you realize something back home is pulling you back. As Khalil Gibran , great poet and philosopher, would say:
My house says to me, 'do not leave me, for here dwells your past.' And the road says to me, 'Come and follow me, for I am your future.' And I say to both my house and the road, 'I have no past, nor have I a future. If I stay here, there is a going in my staying and if I go there is a staying in my going. Only love and death change all things.'
It wasn't long ago that the concept of freedom and independence day dawned on me. As I reached a responsible age, I started seeing the inevitable pressures, duties and obligations 
that parents, society and peers expect from a being. I don't deny them neither would I run away from them at the first possible chance but wouldn't it be great if it wasn't so much complicated. 
Thus I realized how painful it must have been for our forefathers to bear the blot of being a servant country; a third world.Hence we fought and ensured our freedom. What has changed now is that we people don't actually know what being enslaved or achieving ultimate freedom is. If we had known, maybe we must have respected this auspicious day a little better. Nonetheless, ours is a very patriotic country and I am proud of it.

Though concepts of freedom vary person to person, it is the journey and the anxiety that builds up over the result that intrigues me greatly. I would have explained a bit about my concept of freedom but that must have taken well over a few thousand words ; a book or so. Guess we would have to wait for that to from up. I am sorry if the article seems bizarre, I have just thrown in random stuff; maybe because it is difficult to write about a subject when you either know nothing about it or know about it too well. You decide well and understand my dilemma!
Now follows a short poem as promised at the beginning of the article. It is a story of a parrot I brought on one saturday when I was 4 or 5 years of age.

एक शनिवार अचानक
एक गहरे हरे रंग का पंछी दिख गया बाज़ार में
लाल चोंच, कर्कश आवाज़, सर पे मुकुट सा सजा एकल पंख
'इस पंछी को क्या बोलते हैं भैया?' मैंने पूछ लिया
यह तोता है, जो बोलोगे बोलता है
शिकारी ने कविता में जवाब दिया

१० रूपए में, पिंजरे के साथ, खरीद लाया
हरे रंग का नया जानवर
जो आज तक कभी न देखा था न सुना था
और लटका दिया बरामदे में, अच्छे से सजाकर

कहाँ जानता था की १० रूपए में बस शरीर ले आया हूँ उसका
आजादी इतने सस्ते में, कभी न बिकती थी

फिर कई दिन बीत गए
उदासी उतरती ही नहीं उसके चेहरे से
ऐसे चिपक गई जैसे तंज़ चिपकी रहती है आकाओं की जुबां पर

मिर्ची खिला दी, चने फ़ेंक दिए, गर्दन दबा ली
कुछ असर न पड़ा
बस खुली छत की तरफ देखता रहता
और टाये टाये कर के पुकारता रहता जाने किसको

फिर एक दिन जब मैं स्कूल से वापस आया
देखा पिंजरा खली था, माँ ने दरवाज़ा शायद खुला छोड़ दिया
पर मालूम पड़ा माँ ने जानबूझ कर
रिहा कर दिया था उस हरे अजूबे को

मैं बोहोत रोया, चीखा चिल्लाया
कई दिनों तक माँ से बात भी नहीं करी

तब एक रोज़ एक और परिंदा ले आई माँ
और फिर उसे भी कुछ दिन बाद उड़ा दिया
करती रही ऐसा वो काफी समय तक

फिर एक दिन, मुझे भेज दिया
दूर दराज़ के एक महलनुमा स्कूल में पढ़ने
तब समझ में आया, परिंदा रोता क्यूँ था
टाये टाये क्यूँ करता था
सब तो था - मेहेल्नुमा पिंजरा, खाना, ख़याल करने वाले लोग
पर एक चीज़ नहीं थी, वो एक चीज़
जिसे आजादी कहते हैं

Saturday 11 May 2013

माँ Mother

Mother kissing her baby
Image by -

vizionsphotography



I know, I know I haven't written in days even after promising to bring a lot of content in march and heck it's April now but you know I am a busy man don't you? Then there's exams - yours, mine. Chaos! Forgive, forget and read on!

If I have to give one word for this blog it will surely be - development. I started it as my diary entry blog, then I gave it the direction of a blog of a college goer of Greater Noida, and I finally ended up doing my philosophical rant over this space. Guess I like it this way! ;)

And out of all these developments, one development is my personal favorite - my mum has started reading my blog entries though I have clearly directed my sister (mum's official guide to college diaries) that she only lets mum read the censored versions! Now, this development has made me capable enough of one thing - I can wish her out loud, whole heartily and properly this mother day. Though it is very clear that I don't care about a damn day to express love towards my mom; Mother's Day is a very precious occasion, at least for me, and as the occasion calls for it -  I am going with the flow! :)

See I am in my early twenties and guys in this age cannot express their love easily, especially to their moms. Writing is my established forte; and since I am staying away from home I don't have to face her while she reads this. Damn, I would have become red like a tomato if I were front of her while she reads this! Even more if I had to say this to her directly.

No writer can ever write a completely explicit description of mother; no writer ever did no writer ever will. Period. We just try, because we can. And try we do! :D

This one's for you mom, hope you like it -

मेरी गर्दन, नरम तकिया
माँ तेरे हाथ हैं

चूहों की दौड़, इकतरफा हौसला
माँ तेरा साथ है

ज़माने से झगडा, एक बुनियाद का कन्धा
तुझसे मोबाइल पे बात है

हॉस्टल की पहली रात, मेरे आसूं
माँ तेरी याद है

मेरी सिसक, धूपिया गर्माहट
माँ तेरी छाती है

चीज़ खोती है, उसका पता
माँ याद तू ही दिलाती है

मेरा तेज़ बुखार, असरदार दावा
माँ तेरी दुआ है

मेरा जन्म, खुदा से साझीदारी
माँ जनम तुझसे ही हुआ है

दुनिया भर का हल्ला, ज़रा सा आराम
माँ तेरी वाणी है

मेरे अन्दर का शैतान, पर एक फ़रिश्ता भी
माँ तेरी कहानी हैं

मेरी कविता, तेरा व्याख्यान है
मेरा संगीत, तेरी जुबान है
मेरी महक, तेरी खुशबु है
मेरे ज़हन में हर वक़्त, तू ही तू है
मेरी ज़िन्दगी, तेरा क़र्ज़ है
मेरी बिमारी, तेरा ही तो मर्ज़ है
मेरी चर्बी, तेरी रोटी है
संवेग नहीं, बस ये कविता छोटी है

कागज़ सारे, सारी स्याही ख़त्म हो जाएगी
सिर्फ एक कविता से कहाँ बात पूरी हो पायेगी
पर इतना कौन लिखने देगा, इतना कौन पढ़ेगा
वक्त अपना सबको अजीज़ है
दुनियादारी के अबोवेश में मैं भी मै भी तंग हूँ माँ
ये मेरी मज़बूरी नहीं, ये तुझसे विरासत में मिली तमीज है

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