Wednesday, 14 November 2012

दीपावली

काफी दिनों से मेरे मन में था की मै हिंदी में कुछ लिखू || आज मौका भी है और दस्तूर भी | दुनिया के साथ साथ इस दीपावली में हमने भी सोचा की शुभ काम का जय श्री गणेश कर दिया जाए| हिंदी भाषा मुझे बहुत प्रीय है|  शायद आपको मालूम न हो पर लिखित कला से पहली मुलाकात मेरी हिंदी में ही हुई| कई कवितायें लिखीं, कई सुनाई, कुछ अनसुनी भी चल गयी, और कुछ तो सिर्फ वक़्त के पन्नो में खो सी गयी| पर जैसे जैसे स्कूल की किताबों से हिंदी हटती चली गयी, वैसे वैसे ज़हन से भी मिटती चली गईं| अब तो सिर्फ जुबां से निकलती है वो भी टूटी फूटी अंग्रेजी के साथ मिली हुई| ढंग से हिंदी बोलने वाले महापुरुष तो अब चंद ही बचे हैं|

खैर छोड़िये वो सब| बात करते हैं दिवाली की| चूँकि मैं बचपन से ही घर से दूर पढता आया हूँ त्यौहार वगैरा तो सब दोस्तों के साथ मौज करने के तरीके बन गए हैं, सिवाए दिवाली के| दिवाली अकेला ऐसा त्यौहार है जो मै साल दर साल, हर बार अपने घर परिवार के साथ ही मनाता आया हूँ| अंधे नवजात से ले कर भोले बचपन तक और भोले बचपन से ले कर चालाक जवानी तक का सफ़र जो मैंने इन 21 सालों में तय किया है, उसे हर साल एक बार नापने का जरिया दिवाली है| हर साल मुझमे कुछ बदला हुआ लगता है, और बदले हुए में ना ही सिर्फ मेरा वजन है बल्कि और भी कई चीज़े हैं!

बड़े ही सीधी साधी सरल दिवाली होती है छोटे जगह के लोगों की| सुबह जल्दी उठाना और घर की साफ़ सफाई एवं साज सज्जा करना| तरह तरह के फूल मिठाइयाँ इत्यादि लाये जाते हैं| मेरा तो एकल परिवार है, चहल पहल ही अलग रहती है| दुपहर होते होते औरतें रंगोली बनाने एवं श्याम के लिए पकवान इत्यादि तैयार करने में जुट जाती है तो उधर मर्द दिन भर की थकान को दूर करने के लिए जुआ खेलते हैं| कहते हैं यह "स्ट्रेस बस्टर" है| वाह रे दुनिया| श्याम ढलते ढलते मै और पिताजी छत्त पर जा कर दिए जलना शुरू कर देते है| यह हर साल मेरी दिवाली का सबसे प्रीय समय होता है| आज कल तो लोग दियो के नाम पे 'चाइनीज' बत्तियां जलाने लगे हैं जो दियों जैसी लगती है| समय महत्वपूर्ण है भैया कौन भगवान् वगैरा पे खर्चे| श्याम ढलती है और सारा परिवार पूजा के लिए एकत्रित होता है| एक दुसरे को बधाइयां दी जाती हैं| छोटे बड़ों के आशीर्वाद लेते हैं, बड़ा ही सुन्दर नज़ारा होता है| उसके बाद आतिशबाजियों का समा बंधता है| ऐसे तो लोग बड़ी बड़ी गाड़ियों में दफ्तर को अकेले निकल जायेंगे पर दिवाली आते ही बीवी से कहेंगे "डारलिंगज़ इस बार पटाखे नहीं जलाएंगे, गोइंग ग्रीन्ज़!" पर अब न तो पटाखों में न वो मजा रह गया है न तो आवाज़| नकलीपन का जमाना है या उम्र का तकाजा ये तो नहीं मालूम पर अब तो भतीजे भतीजियों को सँभालने में ही आतिशबाजियां छूट जाती हैं| "साले डरो मत" या "साले आगे जाके ढंग से जलाओ वरना अगर किसी को चिंगारी लगी तो बहुत जूते लगायेंगे" इत्यादि बोलते रहना पड़ता है| कर भी क्या सकते हैं भैया समय पे तो लगाम लगाना किसी के बास की बात है नहीं, ऐसा करके ही बचपन दोहोरा लेते हैं| हम पटाखे न जलाए तो क्या, कम से कम दिवाली को यादगार बनाने का इंतज़ाम तो कर ही सकते है।


चूँकि कहा है किसी महान व्यक्ति ने - "ज़िन्दगी लम्बी नहीं बड़ी होनी चाहिए!" तब तक,

अलविदा.

1 comments:

nitin said...

हैट्स ऑफ टू यू सरजी ..

Post a Comment

Watcha think?

Popular Posts